प्रधानमंत्री मोदी इस आधार पर भाषण की शुरूआत करते हैं कि जनता को सिर्फ वही याद रहेगा जो वह उनसे सुनेगी. उनका यकीन इस बात पर लगता है और शायद सही भी हो कि पब्लिक तो तथ्यों की जांच करेगी नहीं, बस उनके भाषण के प्रवाह में बहती जाएगी. इसलिए वे अपने भाषण से ऐसी समां बांधते हैं जैसे अब इसके आर-पार कोई दूसरा सत्य नहीं है. लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण के जवाब में उनका लंबा भाषण टीवी के ज़रिए प्रभाव डाल रहा था मगर इस बात से बेख़बर कि जनता जब तथ्यों की जांच करेगी तब क्या होगा. उनकी यह बात बिल्कुल ठीक है कि कांग्रेस के ज़माने में धारा 365 का बेज़ा इस्तेमाल हुआ. राष्ट्रपति शासन लगाने के संवैधानिक प्रावधानों का इस्तेमाल राजनीतिक दुर्भावना से सरकारें गिराने में होने लगा. लेकिन क्या यह भी सच नहीं कि उनके कार्यकाल में दो दो बार ग़लत तरीके से राष्ट्रपति शासन लगाया गया और कई बार राज्यपालों के ज़रिए वो काम कराया गया या वो भाषा बुलवाई गई जिसे किसी भी तरह से मर्यादा अनुकूल नहीं माना जाएगा.
लोकसभा में राष्ट्रपति शासन को लेकर खुद को महानैतिक बताते हुए उन्हें यह भी याद दिलाना चाहिए था कि मार्च 2016 में उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन क्यों लगा. जब उत्तराखंड हाईकोर्ट ने राष्ट्रपति शासन को ग़लत ठहराया तब उनकी सरकार सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने गई थी और वहां भी हार का सामना करना पड़ा था. अरुण जेटली तब भी ब्लॉग लिखा करते थे, मगर आज के जितनी उनके ब्लॉग की चर्चा नहीं होती थी. जेटली ने कितने शानदार तर्क दिए थे राष्ट्रपति शासन लगाने के हक में मगर अफसोस अदालत में नहीं टिक पाए. मगर आप पढ़ेंगे तो उसकी भाषा के प्रभाव में एक एक शब्द से हां में हां मिलाते चले जाएंगे. उत्तराखंड ने अपने फैसले में कहा था कि राष्ट्रपति शासन का फैसला कोई राजा का फैसला नहीं है जिसकी समीक्षा नहीं हो सकती है.